The Kashmir Files : किसे हो रही है ‘कश्मीर फाइल्स’ से दिक्कत!
ईद की नमाज़ के फौरन बाद श्रीनगर में अलग-अलग जगहों पर युवक सड़कों पर उतरकर सुरक्षाबलों के खिलाफ पत्थरबाज़ी करने लगते हैं। यूं तो उस दौर में श्रीनगर की सड़कों पर पत्थरबाज़ी होना कोई नई बात नहीं थी। अक्सर जुमे की नमाज़ के बाद ये नज़ारा वहां देखा जाता था। लेकिन उस दिन वो पत्थरबाज़ी कश्मीर की कथित आज़ादी के नाम पर नहीं, बल्कि गाजा मुद्दे पर इज़राइल के खिलाफ थी। इज़राइली सेना की जवाबी कार्रवाई में कुछ फिलिस्तीनी बेघर हो गए और इसी को लेकर श्रीनगर की सड़कों पर खूब बवाल काटा गया।
फिलिस्तीन के मुद्दे पर श्रीनगर में हुई ये कोई पहली पत्थरबाज़ी नहीं थी और न ही आखिरी। जब भी इज़राइली बमबारी में फिलिस्तीनी मारे जाते हैं या बेघर होते हैं तो श्रीनगर में उनके समर्थन में ऐसा ही विरोध प्रदर्शन होता है। आखिरी बार 15 मई 2021 को भी श्रीनगर में ऐसा प्रदर्शन हुआ।
और जब भी मैं फिलिस्तीनियों के समर्थन में उनके बेघर होने के मुद्दे पर श्रीनगर की सड़कों पर ये प्रदर्शन देखता था या देखता हूं, तो लगता है कि क्या पूरी दुनिया में इससे बड़ा विरोधाभास कुछ और हो सकता है? जिस कश्मीर से वहीं के कश्मीरी पंडित 1990 में भगाए गए, मारे गए उनकी वापसी के पक्ष में श्रीनगर की सड़कों पर आज तक एक प्रदर्शन नहीं देखा गया। उलटा जब-जब उनकी वापसी की बात उठाई गई, उनके लिए अलग बस्ती बनाने की बात की गई, तो वहां के राजनीतिक दलों से लेकर अलगाववादी संगठनों तक सबने रोड़े अटकाए। लेकिन वही कश्मीरी हर कुछ दिनों में इस बात के लिए फिक्रमंद हो जाते हैं कि इज़राइल फिलिस्तीनियों को उनके घर से बेघर क्यों कर रहा है! उन्हें उजाड़ क्यों रहा है? क्या दुनिया में आपको इससे ज़्यादा त्रासदीपूर्ण और बेशर्म मिसाल कहीं और देखने को मिलती है? मिले, तो मुझे फोन कर ज़रूर बताइएगा!
और बेशर्मी का सिलसिला यहीं पर नहीं रुकता। और आज इतने सालों बाद जब एक फिल्म के ज़रिए उनके विस्थापन या कत्लेआम का मुद्दा फिर से स्थापित हुआ है। दुनियाभर के लोगों तक उनकी तकलीफ पहुंची तब भी बजाए उसे स्वीकार करने के, अपनी गलती मानने के, एक वर्ग अब भी डिनायल मोड में जी रहा है।
तरकश से ऐसा हर तीर निकालकर चलाया जा रहा है जिससे ये साबित हो सके कि या तो कश्मीरी पंडितों के साथ ऐसा कुछ हुआ ही नहीं…हुआ तो इतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ जैसा फिल्म ने दिखाया। बड़े पैमाने पर भी हुआ, तो कश्मीरियों ने नहीं किया, वो तो उस वक्त के राज्यपाल जगमोहन की बदमाशी थी। उस वक्त की केंद्र सरकार की गलती थी जो बीजेपी के समर्थन से चल रही थी। आडवाणी उस वक्त रथयात्रा निकाल रहे थे इसलिए ऐसा हुआ?
मेरे लिए समझ पाना बड़ा मुश्किल है कि एक कौम के साथ ज़्यादती हुई है ये बात कुछ लोगों के लिए स्वीकार पाना इतना मुश्किल क्यों हैं? 5 लाख लोग घर से भगाए गए ये सच है। उनमें से सैकड़ों उस दौरान मारे गए ये भी सच है। ये 5 लाख लोग आज तक अपने घर नहीं आए ये भी सच है, तो इसे स्वीकार कीजिए न। इन दलीलों के क्या मायने हैं कि उस दौरान केंद्र को बीजेपी सरकार समर्थन दे रही थी या आडवाणी यात्रा निकालने वाले थे।
क्या इतने भर से एक पूरी की पूरी कौम अपने पुश्तैनी घर छोड़कर भाग जाती है। जब तक आपका पड़ोसी न चाहे, आपके इलाके की पुलिस न चाहे। आपका मुख्यमंत्री न चाह ले। आपके इलाके के आतंकी संगठन धमकी न दे दे, तब तक क्या कोई इंसान केंद्र में त्रिशंकु सरकार की किसी सहयोगी पार्टी की अनजान चाल से घबराकर अपना घर छोड़ता है! ये लिखते वक्त भी मुझे हंसी आ रही है कि ये कैसा वाक्य विन्यास है!
और ये कौनसा तर्कशास्त्र है जो गुजरात में दंगों के वक्त तो ये बताना नहीं भूलता कि उस वक्त राज्य में किसकी सरकार थी लेकिन कश्मीर में पंडितों को भगाने के वक्त केंद्र सरकार के सहयोगी दल ढूंढने लगती है। क्या ऐसा कहने वालों को ये नहीं पता कि उस वक्त राज्य में फारूख अब्दुल्ला की सरकार थी। उस वक्त भारत के गृहमंत्री कश्मीर के ही मुफ्ती मोहम्मद सईद थे और उसी केंद्र सरकार को बीजेपी के साथ 54 सदस्यों वाला वाम मोर्चा भी अपना समर्थन दे रहा था!
आप इल्जाम लगाते हैं कि एक तरफा कहानी दिखाकर डायरेक्टर लोगों की भावनाएं भड़का रहा है। वो कुछ लोगों की गलती के लिए एक पूरे समाज को विलेन बता रहा है! और जब आप ऐसा कहते हैं तो समझ नहीं आता कि मैं अपना सिर पीटूं या ताली।
आप डायरेक्टर पर इल्ज़ाम लगाते हैं कि वो Selective सच दिखाकर लोगों की भावनाएं भड़का रहा है, तो भाई पिछले सात साल से आप क्या कर रहे हैं? इस देश में 20 करोड़ से ज़्यादा मुसलमान हैं। जो बाकी हिंदुस्तानियों की तरह हर रोज़ अपने काम धंधे पर निकलता है। दुकानदार है तो सामान बेचता है। नौकरीपेशा है तो नौकरी पर जाता है। कहीं वो बॉस है तो कहीं मज़दूर भी। यही मुसलमान काम से घर आता है। बच्चों के साथ खेलता है, खाना खाता है।इधर-उधर की कुछ बात करता है और टीवी देखकर सो जाता है। मगर आप क्या करते हैं? आप नफरत की दो-चार घटनाएं पकड़ते हैं। फिर महीनों उस पर एजेंडा चलाकर ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि इस देश में हर मुसलमान के साथ ज़ुल्म ढाया जा रहा है! उसके कत्लेआम की तैयारी हो रही है। वो इतना खौफ में है कि वो घर से नहीं निकल पा रहा है और बेड के नीचे छिप गया है!
और मैं पूछता हूं कि जब आप अपने दो-चार-पांच लाख Followers के बीच इस तरह के ट्वीट करते हैं, पोस्ट करते हैं तो क्या आप करते हैं? क्या आप नफरत नहीं फैला रहे होते। एजेंडा नहीं चला रहे होते। बेशक चला रहे होते हैं। आप नहीं सोचते कि ऐसा करके मैं पूरी कौम में दहशत पैदा कर रहा हूं। उनके अंदर बहुसंख्यकों के लिए ज़हर बो रहा हूं। अगर डायरेक्टर के पास फिल्म का मंच है तो आपके पास भी आपका सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म है। और जब भी आप अपने मंच पर ऐसा दुष्प्रचार करते हैं तो उस देश को बदनाम करने की कोशिश कर रहे होते हैं जिसने 47 में पाकिस्तान बनने के बाद सेक्युलर बनना तय किया। जिसने अपने ही देश में अपने ही लोगों का पलायन होते देखा लेकिन कहीं उसका बदला नहीं लिया। जिसके संविधान ने हर किसी को अपने तौर तरीके से रहने की छूट दी। मगर आप अपने हर ट्वीट से, हर आर्टिकल से उसी समाज को बदनाम करते हैं। दो-चार घटनाओं को आगे कर उसे पूरे देश का चरित्र बताकर दुनियाभर में अपने देश की ही इज्ज़त उतारते हैं।
आप बात कर रहे हैं फिल्म में अच्छे कश्मीरी मुस्लिम किरदार क्यों नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया के हर समाज में सभ्य और उदार लोग होते हैं। लेकिन उस समाज का चरित्र इस बात से तय होता है कि वहां के उदारपंथियों ने वहां के कट्टरपंथियों को उनका एजेंडा पूरा करने से कैसे रोका! और जब 7 लाख कश्मीरी पंडित वहां से एक बार भगा दिए गए और फिर 30 साल बाद भी वहां बसाए नहीं जा सके तो इस बात के कोई मायने नहीं कि उस दौरान दस लोग क्या सोचते थे। बुरा मानें या भला मोटे तौर पर सच ये है कि कश्मीर का बहुसंख्यक समाज अपने अल्पसंख्यकों की रक्षा करने, उन्हें सुरक्षित महसूस करवाने और उनकी वापसी का अभियान चलाने, उन्हें भरोसा दिलाने में नाकाम रहा है।
लेकिन आपके लिए उस बहुसंख्यक वर्ग की नाकामी मायने नहीं रखती। आपके लिए 5 लाख लोगों का दर्द भी मायने नहीं रखता। आप पूरी फिल्म में दूरबीन लगाकर ये देखते रहे कि वो 2 अच्छे मुस्लिम किरदार कहां हैं, कहीं दिखाई नहीं दे रहे।
हैरानी है कि पानी की तरह साफ होने के बाद बावजूद एक वर्ग सच्चाई देखने को तैयार नहीं। शायद उसे लगता है कि अगर उसने भी बाकियों की तरह इस फिल्म को स्वीकार कर लिया। कश्मीरी पंडितों पर मुस्लिम आतंकियों के अत्याचार की बात कुबूल कर ली, तो इससे राइट विंग को और शै मिल जाएगी। वो और खूंखार हो जाएगा। और सच में अगर यही सोच है तो इससे ज़्यादा शर्मनाक और कुछ नहीं। सच और झूठ के बीच चुनाव करते वक्त इंसान ये नहीं सोचता कि अगर उसने सच चुन लिया तो उसका दुश्मन मज़बूत जाएगा!
सिर्फ अपने दुश्मन की मज़बूती के बारे में सोचकर क्या हम लाखों लोगों के साथ हुए ज़ुल्म के खिलाफ आंखें मूंद लें। अगर ऐसा है, तो फिर सारी बहस की ख़त्म है। चर्चा की कोई गुंजाइश नहीं है। ऐसे लोगों का हिसाब वक्त खुद कर देगा। हमें उनको उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए।
अंत में इतना ज़रूर कहूंगा कि दुनिया में ऐसी कोई कौम नहीं जिससे ग़लतियां न हुई हैं। जिसका दागदार अतीत न रहा हो। लेकिन जीवन में आगे बढ़ने का एक ही तरीका है बिना किसी की परवाह किए उसे स्वीकार करना।
कुछ साल पहले सीरिया में जब हालात बिगड़े और वहां से शरणार्थी जब पूरे यूरोप में गए, पर क्या आप जानते हैं किस यूरोपीय देश ने वहां के लोगों का, उन शरणार्थियों का खुले दिल से स्वागत किया। शरणार्थियों की संख्या पर कोई पाबंदी नहीं लगाई। सीरिया के सबसे ज़्यादा शरणार्थियों को अपने यहां पनाह दी। वो देश था जर्मनी। और जानते हैं क्यों…क्योंकि एक देश के तौर पर जर्मनी की आत्मा पर आज भी हिटलर की ज़्यादतियों का बोझ है। एक देश के तौर पर आज भी वो यहूदियों पर ढाए ज़ुल्म की ग्लानि महसूस करता है। और यही शब्द सबसे महत्वपूर्ण है…ग्लानि! और यही सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं कि जिन लोगों ने कश्मीरी पंडितों पर 32 साल पहले ज़ुल्म ढाए, क्या उनमें वो ग्लानि है? क्या उनकी आत्मा उन्हें कचोटती है? क्या वो भी अपनी ग़लतियां सुधारने के लिए बेकरार है?और शायद आपका अंदाज़ा भी उतना ही सही है जितना मेरा!