हाइलाइट्स
- 1967 के आम चुनाव के बाद राष्ट्रपति चुनाव होने वाले थे
- एक तरफ चीफ जस्टिस रहे सुब्बाराव को विपक्ष सपोर्ट कर रहा था
- दूसरी तरफ कांग्रेस के समर्थन से मैदान में उतरे डॉ. जाकिर हुसैन
नई दिल्ली: जैसे आज विपक्ष यशवंत सिन्हा (Yashwant Sinha) के पीछे एकजुट दिखाई दे रहा है, कुछ वैसा ही सीन 1967 के राष्ट्रपति चुनाव के समय बन गया था। देश में राष्ट्रपति के चौथे चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। एक तरफ कांग्रेस समर्थित कैंडिडेट थे जाकिर हुसैन (Zakir Husain) तो, दूसरी तरफ रिटायर्ड चीफ जस्टिस के. सुब्बाराव को जनसंघ समेत पूरा विपक्ष सपोर्ट कर रहा था। विपक्ष को लग रहा था कि राष्ट्रपति चुनाव में अगर सुब्बा जीत गए तो केंद्र की सत्ता पर काबिज कांग्रेस पर वह अंकुश लगा सकेंगे। कुछ विपक्षी नेता मानकर चल रहे थे कि जाकिर हुसैन की हार के बाद इंदिरा सरकार गिर जाएगी। ऐसा हुआ कुछ नहीं और दोनों तरफ से क्रॉस वोटिंग हुई। हालांकि जाकिर हुसैन के नाम पर कांग्रेस में आम सहमति इतनी आसानी से नहीं बनी। आमतौर पर सरकारें राष्ट्रपति के पद पर किसी ऐसे सुलझे हुए शख्स को देखना चाहती हैं जो सरकार के कामकाज पर नरम बना रहे। यानी सब कुछ देखते हुए भी वह चुप रहे। 1967 के आम चुनाव के बाद कांग्रेस कमजोर दिख रही थी। अब तक कांग्रेस का एकछत्र राज हुआ करता था लेकिन राष्ट्रपति के चुनाव के समय कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें आ चुकी थीं। अगला राष्ट्रपति कौन हो, इंदिरा गांधी और उनके करीबी मंथन में जुटे थे।
एक तबका राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन को ही फिर से राष्ट्रपति बनाने की मांग कर रहा था। कांग्रेस के दिग्गज कामराज भी चाहते थे कि राधाकृष्णन फिर से राष्ट्रपति के लिए खड़े हो। लेकिन राधाकृष्णन खुद पीछे हट गए। उन्हें लगा कि इंदिरा गांधी सपोर्ट नहीं करेंगी। इसकी भी अपनी वजह थी। राधाकृष्णन खुले विचार वाले व्यक्ति थे। पठन-पाठन में विशेष रुचि रखने वाले दार्शनिक स्वभाव के राधाकृष्णन ने एक बार खुलकर कह दिया था कि सरकार अपने कर्तव्यों से हट रही है।
पहली बार कोई मुस्लिम राष्ट्रपति की रेस में
आजादी के 20 साल के बाद देश को तीसरा राष्ट्रपति मिलना था और पहली बार कोई मुस्लिम इसकी रेस में था। जनसंघ ने आपत्ति उठाई कि एक मुस्लिम को राष्ट्रपति के तौर पर स्वीकार करने के लिए देश के लोग राजी नहीं हैं। हिंदू-मुस्लिम की खाई को पाटने और जाकिर हुसैन की उम्मीदवारी मजबूत करने के लिए इंदिरा गांधी ने जेपी से संपर्क किया। सुबह जेपी का बयान अखबारों में छपा। उन्होंने कहा कि विपक्षी दलों को संकीर्ण मानसिकता से बाहर निकलना चाहिए। अगर जाकिर हुसैन साहब राष्ट्रपति नहीं चुने जाते तो यह देश की कौमी एकता के लिए ठीक नहीं होगा। 20 साल पहले हुए हिंदू-मुस्लिम दंगे और धर्म के आधार पर देश के विभाजन का दंश झेलने वाले हिंदुस्तान के लिए राष्ट्रपति का यह चुनाव दुनिया की नजर में सेक्युलरिज्म का लिटमस टेस्ट बन चुका था।
सुब्बाराव बनाम जाकिर हुसैन
कांग्रेस की तरफ से आलोचना की गई कि सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस रहने के बाद राष्ट्रपति का चुनाव लड़कर सुब्बाराव गलत उदाहरण पेश कर रहे हैं। दूसरी तरफ, उपराष्ट्रपति के तौर पर जाकिर हुसैन की कार्यकुशलता और व्यक्तित्व से पूरा देश परिचित था। वह बिहार के राज्यपाल रह चुके थे और AMU में 10 साल कुलपति के तौर पर सेवा दे चुके थे। उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना में अहम भूमिका निभाई। 1962 में उपराष्ट्रपति बनने के बाद अब राष्ट्रपति की रेस में थे।
गैर-कांग्रेसी सीएम से इंदिरा ने की अपील
जैसे इस बार द्रौपदी मुर्मू के नाम का ऐलान होते ही ओडिशा कनेक्शन के चलते बीजू जनता दल का एनडीए को सपोर्ट करना नैतिक दबाव बन गया। इसी तरह बिहार का राज्यपाल रहने के कारण तत्कालीन गैर-कांग्रेसी विधायकों से भी जाकिर हुसैन के लिए वोट मांगे गए थे। बताते हैं कि खुद इंदिरा गांधी ने बिहार के गैर-कांग्रेसी सीएम से अपील की थी कि वह जाकिर को सपोर्ट करें। इसका असर भी नतीजों में दिखा। कांग्रेस की तय सदस्य संख्या से ज्यादा वोट जाकिर हुसैन को मिले।
राजाजी के लिए नेहरू की जोर-आजमाइश, पटेल का डर… डॉ. राजेन्द्र प्रसाद कैसे बने भारत के पहले राष्ट्रपति
कांग्रेस के बाकी नेताओं से बात किए बिना ही नेहरू ने राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति सोच लिया था। लेकिन प्रसाद बाबू कोई छुटभैये नेता तो थे नहीं, इसलिए नेहरू ने 10 सितंबर 1949 को उन्हें एक पत्र लिखा। नेहरू ने प्रसाद से कहा, ‘जल्द ही हमें गणतंत्र के राष्ट्रपति के चुनाव के विषय में फैसला करना होगा…. मैंने वल्लभभाई से इस बारे में चर्चा की है और हमें लगा कि…. राजाजी शायद राष्ट्रपति बने रहेंगे… इसी वजह से वल्लभभाई और मैंने महसूस किया कि एकमत से चुनाव के लिए आपकी ओर से राजाजी का नाम रखा जाए…।‘ (तस्वीरें : TOI आर्काइव्स)
प्रसाद को नेहरू के उस पत्र से बड़ी ठेस पहुंची। वह हैरान थे कि नेहरू और पटेल उन्हें ‘डिक्टेट’ कर रहे हैं। प्रसाद ने 11 सितंबर 1949 को जो जवाब लिखकर भेजा, उसे पटेल को भी भिजवाया। इसमें प्रसाद ने लिखा, ‘इस पत्र की लंबाई के लिए क्षमा कीजिए… मैं और सम्मानजनक विदाई चाहता था…।‘ पटेल भी हैरान थे कि नेहरू ने जब उनसे बात नहीं की तो उनका नाम क्यों घसीट लिया। नेहरू ने उसी दिन प्रसाद को खत भेजा और आज की भाषा में कहें तो पटेल को CC में रखा।
नेहरू ने कहा, ‘जो मैंने आपको लिखा, उसका वल्लभभाई से कोई लेना-देना नहीं है। मैंने बिना वल्लभभाई का संदर्भ दिए या उनका नाम लिए खुद से वह सब लिखा था… वल्लभभाई इस बारे में कुछ नहीं जानते। मैं बेहद क्षमा प्रार्थी हूं यदि मैंने आपको ठेस पहुंचाई है या यह महसूस कराया कि आपको सम्मान देने में मुझसे कमी रह गई।‘
नेहरू का मानना था कि बतौर गवर्नर-जनरल, राजाजी पहले से बड़े कूटनीतिक प्रतिनिधिमंडलों की अगवानी के प्रोटोकॉल की बारीकियां जानते हैं। नेहरू ने लिखा, ‘राजाजी को प्रोटोकॉल की इन बारीकियों का अभ्यस्त होने में थोड़ा समय लगा है। बदलाव का मतलब होगा कि इन प्रक्रियाओं से फिर गुजरना पड़ेगा। इन वजहों से मैंने सोचा कि राजाजी ही बने रहें।‘ नेहरू और प्रसाद, दोनों ही अपनी चिट्ठियों की एक प्रति पटेल को भिजवाते रहे।
पटेल ने 16 सितंबर 1949 को एक पत्र में लिखा, ‘…मैंने ऊपर जो कुछ भी कहा है, मुझे विश्वास है कि आप फिर से समीक्षा करेंगे और किन्हीं भावनाओं के आगे झुक नहीं जाएंगे जो आपने जवाहरलाल को लिखे पत्र में जताई हैं…. आप मामले को फैल जाने दीजिए और दिमाग से यह बात निकाल दीजिए कि हमारे बीच कोई दूरी आ सकती है। हम एक-दूसरे के उतने ही करीब रहेंगे जितना हम विगत वर्षों में रहे हैं।‘
नेहरू 6 अक्टूबर को ब्रिटेन और अमेरिका के लिए रवाना होने वाले थे। वह चाहते थे कि जाने से पहले राजाजी के पक्ष में फैसला हो जाए। उन्होंने अपना प्रस्ताव संविधान सभा के कांग्रेस दल के सामने रखने का फैसला किया। पटेल ने रोकने की कोशिश की मगर नेहरू नहीं माने। उस बैठक के बारे में वी. शंकर ने लिखा है, ‘जैसे ही उन्होंने (नेहरू) ने ऐसा किया, माहौल तनावपूर्ण हो गया। उनका भाषण कुछ उत्साही सदस्यों ने रोक दिया, रुकावट बड़ी सम्मानजनक नहीं थी… नेहरू के बाद कई और लोग बोले और सबने प्रस्ताव का बेहद कड़े शब्दों में विरोध किया। चर्चा काफी उग्र हो चली थी और इसमें कोई संदेह नहीं था कि पार्टी इस प्रस्ताव के साफ खिलाफ थी। अब मंच पर सरदार ने माइक संभाला और करीब 10 मिनट तक बोलते रहे। पटेल ने सदस्यों से मर्यादा बनाए रखने की अपील की।‘
पटेल के दखल से यह तो तय हो गया कि नेहरू का प्रस्ताव गिरेगा नहीं। उसी रात नेहरू ने अपने हाथों से पटेल को लिख भेजा कि यात्रा से लौटकर वह त्यागपत्र दे देंगे। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं। भारत लौटते ही वह राजाजी के चुनाव में लग गए। उन्होंने एक और दांव चला। दिसंबर 1949 को नेहरू ने प्रसाद को लिखा कि पार्टी बेहद अजीबोगरीब स्थिति में पहुंच गई है। नेहरू ने प्रसाद को पार्टी अध्यक्ष या योजना आयोग का चेयरमैन बनाने का ऑफर दिया। प्रसाद ने 12 दिसंबर 1949 को जवाब में नेहरू को दो टूक लिखा- ‘मैं सहमत हूं कि गणतंत्र के राष्ट्रपति से जुड़े फैसले में देरी नहीं करनी चाहिए और अगर मैं कोई मदद कर सकता हूं तो मैं तैयार हूं। किन्हीं कारणों से – चाहे वह न्यायसंगत हों या नहीं- सभा के काफी सदस्यों की यह राय है कि मैं गणतंत्र के राष्ट्रपति का पद स्वीकार करूं। इस संबंध में अलग-अलग लोगों से बात करने के बाद, ऐसा लगता है कि अगर मैंने प्रस्ताव नहीं स्वीकार किया तो वे इसे ‘विश्वासघात’ के रूप में देखेंगे। उन्होंने इस शब्द का इस्तेमाल किया है और मुझसे कहा कि मैं उनके साथ ‘विश्वासघात’ न करूं…।‘
पटेल फैसला कर चुके थे कि वह प्रसाद का साथ देंगे। 18 दिसंबर 1949 को प्रसाद को पत्र में पटेल ने लिखा, ‘आपको जवाहरलाल के विचार पता हैं। आप अनुमान लगा सकते हैं कि मौलाना क्या महसूस करते हैं। दूसरे शब्दों में, आपने मुझपर बड़ा बोझ लाद दिया है। मैं नहीं जानता कि क्या करूं। जवाहरलाल मुझे बताते हैं कि वह मेरे लौटने पर इस बारे में मुझसे चर्चा करेंगे।‘ इसके बाद पटेल ने प्रसाद के पक्ष में गोलबंदी शुरू कर दी। इतिहासकार प्रफेसर मक्खन लाल ने द प्रिंट के लिए अपने लेख में कहा है कि जब डीपी मिश्रा ने पूछा कि प्रसाद जीतने की कितनी संभावना है तो उन्होंने जवाब दिया, ‘अगर दूल्हा पालकी छोड़कर भाग न जाए तो शादी नक्की।‘
पटेल का इशारा सौम्य, विनम्र और शर्मीले प्रसाद की ओर था। उन्हें डर था कि कहीं राजाजी के पक्ष में प्रसाद रिटायर होने को राजी न हो जाएं। हालांकि ऐसा हुआ नहीं। संविधान सभा ने 1950 में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को ही भारत का पहला राष्ट्रपति चुना। वह 1952 में हुआ पहला राष्ट्रपति चुनाव जीते और 1957 में दूसरा भी। राजेन्द्र बाबू मई 1962 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। उनका कार्यकाल सभी राष्ट्रपतियों में सबसे लंबा है।
6 मई 1967 को अचानक ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारण रुकता है और विशेष सूचना प्रसारित की जाती है। कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार डॉ. जाकिर हुसैन के जीत की घोषणा की जाती है और देश का मुस्लिम तबका जश्न में डूब जाता है। दिल्ली की सड़कों पर जुलूस निकल पड़े, यहां तक कि राष्ट्रपति की जीत का ऐलान जामा मस्जिद से किया गया।
जिन्ना vs गांधी
मुसलमानों के खुश होने की अपनी खास वजह थी। जरा उस हालात में जाकर सोचिए। 20 साल पहले एक मुस्लिम लीडर मोहम्मद अली जिन्ना ने यह कहकर मुस्लिमों के लिए पाकिस्तान बनवा दिया कि हिंदू अत्याचार करेंगे और मुसलमानों को उनका हक नहीं देंगे। लेकिन भारत में रुके मुस्लिम समुदाय ने हिंदू लीडर महात्मा गांधी की बातों पर भरोसा किया और 20 साल में ही देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर एक मुस्लिम बैठने जा रहा था। विदेशी मीडिया ने तब कहा था कि सेक्युलरिज्म के लिटमस टेस्ट में भारत पास हो गया। इंदिरा गांधी ने खुद डॉ. जाकिर हुसैन के घर जाकर जीत की बधाई दी थी। हालांकि तब तक उन्हें राष्ट्रपति राधाकृष्णन खुशखबरी दे चुके थे।
हैदराबाद में जन्मे जाकिर हुसैन ने कम उम्र में ही अपने माता-पिता को खो दिया था। भारत के ‘रत्न’ अब देश के राष्ट्रपति बन चुके थे। पश्तून मुसलमानों (खैबर-पख्तूनख्वा) के अफरीदी परिवार से ताल्लुक रखने वाले जाकिर के जीत की चर्चा पाकिस्तान में खूब हुई। 20 साल में पाकिस्तान और हिंदुस्तान की तरक्की की तुलना हुई और भारत कहीं आगे दिखा।
आज की पीढ़ी डॉ. जाकिर हुसैन को सफेद गांधीवादी टोपी, सफेद फ्रेंच दाढ़ी और आखों के आगे शान से टिके काले चश्मे से पहचानती है। यही तस्वीरें गूगल से लेकर किताबों तक में मिलती हैं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्टाइल उनके पहनावे में झलकती थी।
यूपी कनेक्शन
शायद कम लोगों को पता होगा कि जाकिर हुसैन यूपी के फरूखाबाद जिले के रहने वाले थे। कायमगंज से डेढ़ मील के फासले पर जाकिर का ‘पतौरा’ गांव है। हां, उनका जन्म हैदराबाद में हुआ था क्योंकि उनके पिता वहीं पर वकालत करते थे।
एक कुशल प्रशासक होने के साथ ही वह बेजोड़ शिक्षा शास्त्री, अर्थशास्त्री और भी थे। 13 मई 1969 को लंबी बीमारी के बाद राष्ट्रपति पद पर होते हुए जाकिर हुसैन का इंतकाल हो गया। यह देश के लिए गौरव की बात है कि पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, दूसरे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और तीसरे डॉ. जाकिर हुसैन के रूप में हमें महान शिक्षाविद राष्ट्रपति मिले।