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370, राम मंदिर तो पूरा, अब हिजाब के बहाने समान नागरिक संहिता के रास्ते आगे बढ़ रही बीजेपी?

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  • आर्टिकल 370, राम मंदिर और समान नागरिक संहिता बीजेपी का रहा है कोर अजेंडा
  • मोदी सरकार ने दूसरे कार्यकाल में 370 पर वादा पूरा किया, अदालती फैसले से मंदिर निर्माण भी शुरू
  • हिजाब विवाद के बीच वोटिंग से पहले उत्तराखंड के सीएम ने समान नागरिक संहिता का छेड़ा राग
कर्नाटक में हिजाब पर उठे विवाद (Karnataka Hijab Controversy) के बीच उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने वादा किया है कि अगर सूबे में बीजेपी फिर सत्ता में आई तो समान नागरिक संहिता (Common Civil Code) को लागू करेगी। वैसे तो समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) हमेशा से बीजेपी के अजेंडे में शामिल रहा है। उसके चुनावी वादों का हिस्सा रहा है। तो क्या हिजाब विवाद के बीच बीजेपी समान नागरिक संहिता लागू करने के रास्ते पर बढ़ रही है, बता रहे हैं हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया के धनंजय महापात्र।उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने वादा किया है कि अगर बीजेपी फिर सत्ता में आती है तो पहाड़ी राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करेगी। 1998 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी ने 3 प्रमुख वादों पर वोट मांगे थे- अनुच्छेद 370 का खात्मा, अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण और समान नागरिक संहिता को लागू करना।

वाजपेयी की अगुआई में बीजेपी ने 13 पार्टियों का गठबंधन एनडीए बनाकर सरकार गठित की। बहुमत नहीं होने और गठबंधन धर्म की मजबूरियों के चलते बीजेपी अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए कुछ खास नहीं कर पाई। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला। इसके बाद भी पहले कार्यकाल में इन मुद्दों पर पार्टी कुछ अलग नहीं कर पाई।
2019 में लगातार दूसरी बार बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद तस्वीर बदली है। दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही अगस्त 2019 में मोदी सरकार ने आर्टिकल 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष राज्य के दर्जे को खत्म कर दिया। अयोध्या विवाद में मंदिर के पक्ष में अदालती फैसला आने से बीजेपी का एक और बड़ा चुनावी वादा पूरा होने का रास्ता साफ हो गया। नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के पक्ष में फैसला दिया। अब तो बीजेपी के प्रमुख अजेंडों में समान नागरिक संहिता ही है, जिसका पूरा होना बाकी है।समान नागरिक संहिता का विवाद 70 साल से भी ज्यादा पुराना है। संविधान सभा में इस पर लंबी बहस चली थी। संविधान का जो मसौदा तैयार किया गया था उसके आर्टिकल 35 (संविधान अपनाए जाने पर जो आर्टिकल 44 बना) में कहा गया, ‘राज्य संपूर्ण भारत क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की कोशिश करेगा।’

ज्यादातर मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसका विरोध किया। उनकी मांग थी कि इस आर्टिकल में ऐसा कुछ भी न हो तो नागरिकों के लिए पर्सनल लॉ को प्रभावित करे।

संविधान सभा में महशूर वकील और पश्चिम बंगाल से मुस्लिम लीग के सदस्य नजीरुद्दीन अहमद ने दलील दी कि मुस्लिम समुदाय समान नागरिक संहिता के लिए तैयार नहीं है। उन्होंने कहा, ‘175 सालों तक शासन के दौरान ब्रिटिश हुकूमत ने कभी पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप नहीं किया…मुझे कोई संदेह नहीं है कि एक वक्त ऐसा आएगा जब सिविल लॉ एक समान होंगे। लेकिन अभी वह वक्त नहीं आया है…हमारा लक्ष्य समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ना है लेकिन यह धीरे-धीरे होना चाहिए और संबंधित लोगों की सहमति से होना चाहिए।’

पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने हिंदू कोड बिल 1955 के जरिए हिंदू पर्सनल लॉ के संहिताकरण की कोशिश की। तब हिंदू सांसदों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और पूछा- क्यों सिर्फ हिंदुओं के पर्सनल लॉ में दखल दिया जा रहा है, मुस्लिमों या ईसाइयों के पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध क्यों नहीं किया जा रहा?तब हिंदू सांसदों की आपत्ति पर नेहरू ने नजीरुद्दीन अहमद की ही दलीलों को दोहराया, ‘मुस्लिम समुदाय अभी तैयार नहीं है।’ जेबी कृपलानी ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने नेहरू पर यह कहकर तंज कसा, ‘सिर्फ हिंदू महासभा वाले ही इकलौते सांप्रदायिक नहीं हैं। ये सरकार भी सांप्रदायिक है, इसे आप चाहे जो कहिए। ये एक सांप्रदायिक कदम उठा रही है। मैं आप पर सांप्रदायिकता का आरोप लगा रहा हूं क्योंकि आप सिर्फ हिंदू समुदाय के लिए एक विवाह वाला कानून ला रहे हैं। मैं कह रहा हूं कि मुस्लिम समुदाय इसके लिए तैयार है लेकिन आप में ही हिम्मत नहीं है…अगर आप हिंदू समुदाय के लिए ये चाहते (तलाक के प्रावधान) हैं तो कीजिए, लेकिन कैथोलिक समुदाय के लिए भी कीजिए।’

समान नागरिक संहिता को लेकर नेहरूवादी हिचक आगे भी बरकरार रही। मौलाना खुलकर सरकारों को चेताते रहे। कभी ये कि अगर आप ऐसा करेंगे तो हमारी धार्मिक भावनाएं आहत होंगी, कभी ये कि ऐसा नहीं करेंगे तो धार्मिक भावनाएं आहत होंगी।दशकों तक सुप्रीम कोर्ट समान नागरिक संहिता पर राजनीतिक वर्ग की थरथराहट पर तंज कसता रहा। सरकारें बस इतना ही कहती रहीं कि आर्टिकल 44 में संविधान निर्माताओं ने जो इच्छा जताई है, उसे हासिल किया जाएगा।

हिंदू पर्सनल लॉज के कोडिफिकेशन के 3 दशक बाद सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो बेगम मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया। कोर्ट ने क्रिमिनल प्रोसेजर कोड की धारा 125 के तहत फैसला दिया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भी इद्दत की अवधि के बाद उसके पति की ओर से तब तक गुजारा भत्ता मिलेगा, जबतक वह दूसरी शादी नहीं करती।

मौलानाओं और मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव के आगे राजीव गांधी सरकार झुक गई। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए सरकार मुस्लिम वुमन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स) ऐक्ट, 1986 लाई।2001 में डैनियल लतिफी, 2007 में इकबाल बानो केस और 2009 में शबाना बानो मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि मुस्लिम महिलाओं को धारा 125 के तहत मिले फायदों से वंचित नहीं किया जा सकता।

1985 के शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘पर्सनल लॉ में टकराव वाली विचारधाराओं को हटाकर समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकीकरण को मजबूत करेगा।’ 1995 में सरला मुद्गल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘जहां 80 प्रतिशत से ज्यादा नागरिकों के लिए पर्सनल लॉ को लेकर पहले से संहिता है तब इस बात का कोई औचित्य नहीं दिखता कि भारत के सभी नागरिकों के समान नागरिक संहिता क्यों नहीं है।’जॉन वल्लामट्टोम केस (2003) में सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि संविधान के अनुच्छेद 44 में जो लक्ष्य तय किए गए हैं, उन्हें हासिल किया जाना चाहिए। लेकिन आजादी के 7 दशक बाद भी वही पुरानी नेहरूवादी दलील जारी है- मुस्लिम समुदाय तैयार नहीं है।

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