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तेजस्वी यादव पर मेहरबानी और सत्ता सौंपने की बेचैनी में क्यों हैं नीतीश कुमार? जानें इनसाइड स्टोरी

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  • नीतीश पिछले दो दिनों में दो बार तेजस्वी को नेता बनाने की कर चुके हैं घोषणा
  • नीतीश कुमार ने अपने गृह जिले नालंदा में तेजस्वी को महागठबंधन का नेता घोषित किया
  • सत्ता से चिपके रहने वाले नीतीश कुमार क्यों बनाना चाह रहे हैं तेजस्वी को उत्तराधिकारी
  • नीतीश कुमार की क्या है मजबूरी जिसके चलते वह तेजस्वी को बनाना चाहते हैं नेता
पटना: व्यंग्यात्मक लहजे में बिहार में कुर्सी कुमार के नाम से मशहूर नीतीश कुमार अपने नए साथी आरजेडी के नेता और फिलवक्त उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को बिहार की कमान सौंपने के लिए इतने बेचैन क्यों हैं। कुर्सी के लिए समय-समय पर पाला बदलने वाले नीतीश कुमार का नामकरण जिस आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने पलटू राम रखा था, उन्हें भी नीतीश की इस बार की पलटी पर भरोसा कैसे हो गया है। और आखिर में क्या सचमुच नीतीश कुमार तेजस्वी को अपने मन से कुर्सी सौंप रहे हैं या कोई बड़ी मजबूरी है उनके सामने। ऐसे कई सवाल बिहार की राजनीति में पिछले तीन-चार दिनों से तैर रहे हैं। कुर्सी के लिए उन्होंने कभी बीजेपी तो कभी आरजेडी का साथ पसंद किया। कुर्सी के लिए ही अपने साथी जीतन राम मांझी को किनारे किया। अब उनके सामने ऐसी कौन-सी मजबूरी आ गयी है कि वह बिना किसी दबाव के अपनी कुर्सी तेजस्वी यादव को सौंपने को तैयार हो गये हैं। आइए जानते हैं, अंदर की कहानी।

लाचार हो गये हैं नीतीश कुमार!

सच बात यह है कि अपने दरकते जनाधार से नीतीश कुमार परेशान हैं। कभी बिहार में सुशासन के लिए चर्चित हुए नीतीश कुमार भले ही 6-7 प्रतिशत कुर्मी-कुशवाहा वोटरों के नेता के रूप में उभरे हों, लेकिन बाद में उन्होंने अपना जनाधार बढ़ा लिया। उनकी पैठ तकरीबन सभी जातियों के वोटरों में हो गयी। यहां तक कि आरजेडी के कोर वोटर मुस्लिम-यादव और दलित-पिछड़ों को साधने की उन्होंने कोशिश की। दलित-महादलित और पसमांदा मुसलमानों को खांचे में बांट कर वोट बैंक बढ़ाने में वे कामयाब भी रहे। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में महज 43 सीटें आने पर उन्हें एहसास हुआ कि उनका कोर वोट बैंक दरक गया है। दरअसल, नीतीश का कोर वोटर वही था, जो पहले आरजेडी का हुआ करता था। मुसलमानों में अगड़े-पिछड़े और दलितों में दलित-महादलित का खांचा बना कर उन्होंने उन्हीं वोटरों को साधने की कोशिश की, जो परंपरागत तौर पर लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले आरजेडी के थे।

यही वजह रही कि 2015 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी के साथ जेडीयू ने जब चुनाव लड़ा तो तकरीबन बराबर सीटें उनकी भी पार्टी को मिलीं। डेढ़ साल बाद ही उन्होंने आरजेडी से पिंड छुड़ा लिया और बीजेपी के साथ सरकार बना ली। उनकी आंख तब खुली, जब 2020 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी के 43 विधायक जीते और सहयोगी बीजेपी के ड्योढ़ा से कुछ अधिक। इसे नीतीश कुमार ने बीजेपी की साजिश समझी। इसलिए कि रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान ने सिर्फ जेडीयू उम्मीदवारों के खिलाफ ही अपने प्रत्याशी दिये, जो कभी एनडीए का ही हिस्सा थे और एनडीए से अलग होने के बावजूद नरेंद्र मोदी के लिए खुद को हनुमान बता रहे थे।

कुढ़नी उपचुनाव ने बची कसर निकाल दी

आरजेडी और जेडीयू का समान वोट बैंक होने के कारण उन्होंने बीजेपी से नाता तोड़ आरजेडी का साथ लेने का निर्णय ले लिया। राजनीतिक हलके में उसी वक्त से यह बात तैर रही थी कि आरजेडी और जेडीयू के बीच जो समझौता हुआ है, उसके मुताबिक नीतीश 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अपने को बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को गोलबंद करने का काम में लगायेंगे और कुछ दिनों बाद वे तेजस्वी यादव को बिहार की कमान सौंप देंगे। नीतीश को सबसे बड़ा झटका कुढ़नी विधानसभा उपचुनाव में लगा। उन्होंने अपने दल के उम्मीदवार के लिए आरजेडी से सीट तो ले ली, लेकिन कई दलों के समर्थन के बावजूद अकेली लड़ी बीजेपी से उनका उम्मीदवार हार गया। अपने-परायों की आलोचना और कुढ़नी में हार से नीतीश कुमार को एहसास हो गया है कि बिहार की राजनीति में अब उनकी छवि चुनाव जिताऊ नेता की नहीं रही।

नीतीश ने नालंदा में कर दी घोषणा

नालंदा में एक डेंटल कॉलेज के उद्घाटन के दौरान नीतीश ने बिहार के भावी मुख्यमंत्री के रूप में तेजस्वी यादव के नाम की घोषणा कर दी। बिना किसी लाग लपेट के नीतीश ने कहा कि अब तेजस्वी ही उनके कामों को आगे बढ़ायेंगे। अब वह खुद सीएम रहना नहीं चाहते। उन्हें पीएम पद की भी कोई लालसा नहीं है। हां, बिहार की जिम्मेदारी से मुक्त होकर वह बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों को गोलबंद करने में अपना समय लगायेंगे। सितंबर में यही बात आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने भी कही थी, लेकिन उनकी बात पर हंगामा बरपा था।

विपक्ष के साथ अपने भी हमलावर

दरअसल, नीतीश कुमार बढ़ती उम्र और अपने-परायों की आलोचनाओं से इतने परेशान हैं कि अब उन्हें आगे का रास्ता सूझ नहीं रहा। उनके सीएम बने रहने का नैतिक आधार भी नहीं है, इसलिए कि अपने से तकरीबन दोगुने विधायकों वाली पार्टी आरजेडी के समर्थन से वह सरकार चला रहे हैं। अपनों की आलोचनाओं का आलम यह है कि सोमवार से शुरू हुए विधानसभा के शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन जेडीयू विधायक संजीव कुमार ने अपनी ही सरकार पर सवाल खड़े कर दिये। उन्होंने कहा कि बिहार में शराबबंदी फेल है। शराबबंदी की समीक्षा होनी चाहिए। शराबबंदी के नाम पर पुलिस दलितों और अति पिछड़ों पर अत्याचार कर रही है। पुलिस की मिलीभगत के कारण ही बिहार में शराब की खेप ट्रकों में भर-भर कर आ रही है। शराबबंदी को लेकर आरजेडी के एक पूर्व विधायक ने भी लगभग ऐसी ही बातें कही थीं। सरकार में सहयोगी हम के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी समय-समय पर शराबबंदी पर बोलते रहे हैं।

इधर आरजेडी के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह के बेटे पूर्व मंत्री सुधाकर सिंह से नीतीश की तनातनी जगजाहिर है। सुधाकर सिंह की नीतीश से नाराजगी का आलम यह है कि उनके पिता जगदानंद सिंह नीतीश को जहां पीएम मटेरियल के रूप में देख रहे हैं, वहीं उनके बेटे सुधाकर सिंह का कहना है कि नीतीश कुमार अगर सक्षम हैं तो प्रधानमंत्री बनें। इसके लिए मेरी उन्हें शुभकामनाएं हैं। अगर उनके अंदर काबिलियत है तो वह संयुक्त राष्ट्र संघ के सचिव बन जाएं। सुधाकर सिंह ने कहा है कि अगर नीतीश कुमार सक्षम हैं तो जनता के सामने खुद को साबित करें।

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